जहाँ हो दलित अत्याचार करें सिर्फ एक पुकार राष्ट्रीय दलित युवा मोर्चा

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Friday, February 19, 2010

Guru Ravidas & Bouddha darshan

आप सभी को संत शिरोमणि गुरु रविदास जी जयंती की हार्दिक शुभकामनाये 
                सतगुरु रविदास जी तथा बोद्ध दर्शन 
सतगुरु रविदास जी के  दर्शन पर एक नज़र डाली जाये तो स्पस्ट पता चलता हैं की तथागता भगवान गौतम बुद्ध ने जो लगभग २५०० वर्ष पुर्व जन साधारण का मार्ग दर्शन किया था उसी पर चलकर  सतगुरु रविदास जी ने अपनी जनता का जनजागरण किया हैं | आपके उपदेशो में हम सहज ही भगवान बुद्ध की अनेक शिक्षाओं की झलक देख सकते हैं | डा ० नैपाल सिंह (उत्तरी भारत के संस्क्रित विकास में संतों का योगदान ,पृष्ठ ९९)के अनुसार जिस जाती प्रथा को चुनोती देकर भगवान बुद्ध ने एक महान आन्दोलन की शुरुवात की  उसे संतों ने चरमसीमा तक पहुंचा दिया था |डा . आडकर के अनुसार  निर्गुण संतों का दृष्टिकोण बौद्ध धम्म के दृष्टिकोण से मिलता जुलता  हैं जो शताव्दियों तक वैदिक धर्म से संघर्ष करता हैं | बौद्ध धम्म से प्रेरित इस विचारधारा के विकास के कारण ही यह संभव हो सका की संत काव्य वैदिक परंपरा के कर्मकांडो का विरोध कर सका जो कालांतर में वैष्णव धर्म में भक्ति के | इसीलिए निर्गुण संतों ने अवतारवाद,मूर्ति पूजा ,तीर्थ.व्रत.माला आदि विरोध किया (हिंदी निर्गुण काव्य का प्रारंभ ,पृष्ठ-१०६)|इन विचारों के समर्थन में डा.धरमपाल सरीन लिखते हैं की मध्ययुगीन संत काव्य की आधारशिला अनुभव ज्ञान की हैं इसमें जीवन का प्रत्यक्ष दर्शन हैं |इसमें प्राचीन वैदिक साहित्य की उपेक्षा की गयी हैं | इसका दृष्टिकोण बौद्ध धम्म के अनुरूप हैं जो शताब्दियों तक वैदिक धर्म से संघर्ष करता रहा |संत काव्य बौद्ध साहित्य की परंपरा से ही अनुप्रमाणित हुआ मन जाता हैं (नीच ते उंच कीओ मेरे सतगुरु,पृष्ठ -३३)डा ग्रिय्सेन के हवाले से डा. हजारी प्रसाद दिवेदी लिखतें हैं की भक्ति आन्दोलन एक विरत जन आन्दोलन था |यह सभी आंदोलनों से कहीं अधिक विशाल था क्योंकि इसका प्रभाव आज वर्तमान में भी दिखाई  पड़ता हैं|
गुरु   रविदास का कथन हैं की :-
       पढ़े गुने कुछ समझि न परही,जों लो अनभे भाऊ न दरसे  |
सतगुरु रविदास जी केवल अनुभव पर इस बल को बौद्ध परंपरा में भी पूरी पूर्णतया स्वीकारा गया |स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा कहा गया हैं की किसी की सुनी सुनाई बात पर विस्वास नहीं करना चाहिए ,केवल उसे इसलिए भी नहीं मन लेनी चाहिए की परंपरा ने उसे स्वीकारा गया हैं उसे तभी मानना चाहिए जब स्वयं अपने अनुभव तथा विचार द्वारा उसे सिद्ध कर लिया गया हो |
         सुरसरी सलल क्रित बारुनी रे संत जन करत नहीं पानं |
         सुरा अपवित्र नत अवर जल रे सुरसरी मिळत नहि होई आनं |
सतगुरु रविदास जी कहतें हैं की शराब यदि गंगा जल से भी बनाई गई हो तो व्यक्ति को उसका सेवन नहीं करना चाहिए .क्योंकि शराब तो अन्तः शराब ही है अर्थात अपवित्र हैं पर यदि शराब या अपवित्र पानी गंगा में फेक दिया जाये तो वह गंगाजल से मिलकर अलग नही होता अर्थात गंगा का ही रूप हो जाता हैं |उसी प्रकार भिक्षुओ को भी एक ऐसे ही शिक्षापद --:"सुरा मेर मध् बेर मणि सिक्का पदम् समदयामी"
      रविदास सोई साधू भलो,जऊ जानही पर पीर |
      पर पीरा कहुं परिव के ,रहवे सदही अधीर ||
सदगुरू जी कहतें हैं की साधू वही अच्छा हैं जों दूसरों के दुःख को समझता हैं दूसरों के दुख में सहायक होता हैं और सबके दुखों को अपना मानता हो | सदगुरू की यह विचारधारा बोधिसत्व की करुना और मैत्री  दया भाव को स्मरण कराती हैं |आपने जाति-पाती का भी खंडन किया हैं|
              रविदास ब्राहण मत पुजिये , जऊ होवे गुणहीन |
              पूजहिं चरण चंडाल के,जऊ होवे गुण प्रवीन ||
सदगुरू जी कहतें हैं की यदि ब्राहण बिना किसी गुण के हो तो उसे नही पूजना चाहिए .उसका आदर नहीं करना चाहिए , परन्तु यदि चंडाल गुण प्रवीन हो तो अच्छे गुण वाला हो तो उसकी पूजा करनी चाहिए उसका आदर करना चाहिए |ऐसे ही भेद-भाव को भगवान बुद्ध ने भी अस्वीकार किया था , ऐसे ही विचारों का प्रसार गुरूजी अपनी वाणियों में प्रकट  किया हैं 
           ऐसा चाहूँ राज मैं ,जहाँ मिले सबन को अन्न |
           छोट बड़ो सब सम बसे रहे रैदास प्रसन्न ||
             जय गुरुदेव-- जय भीम---नमो बुद्धाय

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